एक वो दिन भी था
जब तुम चहकती
कूदती फिरती थी
सारे मोहल्ले भर में
हर और से
तुम्हारे नामके
पुकारे लगते थे
जिस और से
तुम गुजरती थी
जैसे सर सर हवाओं के झोंके
सर पर से निकल जाए
ऐसे दुप्पट्टा लहराते
बल खाते तुम जाती
गली के जिस मोड़ पर
तुम थम जाती
वंही सहेलियों का हुजूम भी
ठहर जाता
ए, रसीली नयना
तुम्हारी मीठी मधुर
रसभीनी रसबतिया
कि फुहारों से
सखियों का दिल भीग
भीग जाता
ए मृगनयनी
फिर वो दिन भी आया
जब बागों में
खिली कलियों पर
तुम्हारे रूप रंग का ही
खुमार छाया नज़र आने लगा
तुम कितनी मधुर
और सुघर लगती रही
और जब तुम
सखियों संग
गलियों से गुजरती
हंसती विहँसती
तो, जैसे राहें भी धमकती
ये कमनीय कामिनी
तुम्हारे रूप का सागर
जब उमड़ने लगा
उफनते समुद्र का ज्वार
महसूस होने लगा
जब तुम्हारे कपोलों पर
दुधीलि रसभरी
कच्ची कलियाँ चटकने लगी
और तुम्हारे वस्त्रों से
जानलेवा उभार झलकने लगा
तुम तब
बेपर कि परी लगने लगी
तुम ठहरकर तब
क्या सोचती होगी
जब , खुद को शीशे में
निरखकर , मौन होकर
मुस्कराती हो
और सबकी आँखों में
तुम्हारा रूप चौंधिया जाता
ये चांदनी रातों का
सुरूर जगाने वाली
तुम्हे देखने वालों की
अआँखों कि नींद जब
रूठ जाती है
तब भी तुम
भोरी भोरी
फिरा करती हो
ए ,बिल्लोरी आँखों वाली
रस-नयना
तुम्हारी मदहोश नज़र पर
जब आशिकों के दिल
लट्टू हो जाते है
तब भी तुम
दुप्पट्टे को बेख्याली में
नटखट मुस्कान के साथ
कन्धों पर झालकाकर
दिल खिंच लिया करती हो
सब कुछ जानकर
अनजान बनने वाली
ए नीरज नयना
अनचिन्हों का दिल भी
तुमने सहज में खिंचा था
जब अपने साइन पर
मुठ्ठियों में
तुमने दुप्पट्टा भींचा था
तुम कितनी सुन्दर हो
कटीली चितवन से
बूझो तो
कि, आज भी जो
धमक धमककर
तेज तेज चलकर
लड़कों के झुण्ड के सामने से
बचकर निकलती हो
सच तुम्हारे यौवन कि सौगंध
तुम्हारी समस्त मांसलता
देखने वालों कि
आँखों में
इठला इठलाकर
उतरती है
जोगेश्वरी सधीर कि लम्बी कविता