देख तो, उठकर जरा
ओ गंभीरा
कैसा नीरव रात्रि में
सावन झूमकर बरसता है
तब तेरे रूप को निरखने
प्रणय-अनुरागी मन
चातक सा तरसता है
हे, मेघसुता
तू, करके , जब
भादों की बिज्रियों का श्रंगार
जब जब आती है
मेरे मन के द्वार
तो, निरखकर
तेरा यौवनोंमुख मुख
मन हो जाता है
प्रणय के लिए, अधीर
ओ गंभीरा
कैसा नीरव रात्रि में
सावन झूमकर बरसता है
तब तेरे रूप को निरखने
प्रणय-अनुरागी मन
चातक सा तरसता है
हे, मेघसुता
तू, करके , जब
भादों की बिज्रियों का श्रंगार
जब जब आती है
मेरे मन के द्वार
तो, निरखकर
तेरा यौवनोंमुख मुख
मन हो जाता है
प्रणय के लिए, अधीर
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